Tuesday, 5 August 2014

ज़िन्दगी


ज़िन्दगी 


सड़क के उस छोर पे कनखियों से झांकती ,
ज़िन्दगी भीड़ में यूँ चुपचाप खड़ी  है ,
बे-चेहरा  सी है , चहरे की तलाश में है भटकती ,
वक़्त की कब्र में ज़िंदा लाश सी गड़ी है ,
भीड़ में चीखती आवाज़ों में गुम है ,
बेज़ुबान लफ्ज है होंठों पे चुप्पी अड़ी है,
खाली से लोगों में , खनकता फरेब है,
सन्नाटे में दबी सिसकियाँ पड़ी है 
ज़िन्दगी भीड़ में यूँ चुपचाप खड़ी है। 

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