शाम जब ढलती है
तो ढलने लगता है ये शहर जैसे,
ढलने लगती है दफ्तरों में जिंदगी की दौड़,
ढलने लगती है वो गली, वो चौराहा, वो मोड़,
छुपने लगती है धुप उन पहाड़ों के पीछे,
झील जगमगाने लगती है सितारों नीचे,
खानबदोशियों से लौटने लगते हैं , परिन्दे पेड़ों की ओर,
खामोशियों में दबने लगता है, पुरे दिन का शोर,
घर करने लगती है मन में यादें किसी की,
कानो में घुलती थी जो बातें किसी की,
सड़क के सुदूर छोर को अँधेरा निगलने लगता है,
मन में जमा बैचैनी का बर्फ पिघलने लगता है,
ढलने लगता है दर्द , ढलता है ये पहर जैसे,
शाम जब ढलती,
तो ढलने लगता है ये शहर जैसे।
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