Wednesday, 6 August 2014

आँगन



धूप जब पत्तों से छनके मेरे चेहरे पे गुनगुनाती है ,
मुझे घर का आँगन, वो चौखट याद आती है ,

वो काला कोना आँगन का जो बेवजह डराता था,
वो नीम का पेड़ जो गर्मियों में झूला झुलाता था ,
वो कोना जिसमे खाट पे बैठी अम्मा राम-राम गुनती थी,
जहाँ चौकी बिछा माँ आचार की कैरियाँ चुनती थी,
अक्सर यादों के बंजर में बेवक़्त बरस जाती है ,
मुझे घर का आँगन, वो चौखट याद  है।    

कुल्फी की फेरी सुन वो बेसुध दौड़ पड़ना ,
हथेली  में रखे चार आने के बल पे दम भरना,
जून की दोपहरी में भी हर सड़क नाप आना ,
उस माली से दुश्मनी , आम के बाग़ से याराना ,
अब ख़ुशी जिंदगी की दौड़ में अक्सर हार जाती है,
मझे घर का आँगन , वो चौखट याद आती है। 


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