सदियों से जगी रही इस बस्ती में , मैं ख्वाब लिए खड़ा हूँ
जैसे काफिरों की इस भीड़ में नमाज़ लिए खड़ा हूँ
इल्म अब रहता भी नहीं मुझको , आने वाले कल का अपने
मैं बीते कल की लाश पे अपना आज लिए खड़ा हूँ।
खामोशियों की तलाश में हूँ भटकता , इन चीखों के जंगल में
मूक सब आँखे हैं , ज़हन सब चुप
सिले से इन होठों पे , सरगम सी आवाज़ लिए खड़ा हूँ
जैसे काफिरों की इस भीड़ में नमाज़ लिए खड़ा हूँ।
पीठ पे ख़ंजर के ज़ख्म कई बार गिने हैं मैंने ,
कई बार खोया है खुदको , किसी को पाने की लड़ाई में
कई बार उड़ना चाहा उस जहां को ,
जहा इश्क़ हो , फुरसत हो , सुकून हो...
इन्हीं परकटे अरमानों की परवाज़ लिए खड़ा हूँ ,
जैसे काफिरों की इस भीड़ में नमाज़ लिए खड़ा हूँ।
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