Sunday, 11 January 2015

काफिरों की नमाज़

सदियों से जगी रही इस बस्ती में , मैं ख्वाब लिए खड़ा हूँ 
जैसे काफिरों की इस भीड़ में नमाज़ लिए खड़ा हूँ 
इल्म अब रहता भी नहीं मुझको , आने वाले कल का अपने 
मैं बीते कल की लाश पे अपना आज लिए खड़ा हूँ। 

खामोशियों की तलाश में हूँ भटकता , इन चीखों के जंगल में  
मूक सब आँखे हैं , ज़हन सब चुप 
सिले से इन होठों पे , सरगम सी आवाज़ लिए खड़ा हूँ 
जैसे काफिरों की इस भीड़ में नमाज़ लिए खड़ा हूँ। 

पीठ पे ख़ंजर के ज़ख्म कई बार गिने हैं मैंने ,
कई बार खोया है खुदको , किसी को पाने की लड़ाई में 
कई बार उड़ना चाहा उस जहां को ,
जहा इश्क़ हो  , फुरसत हो  , सुकून हो... 
इन्हीं परकटे अरमानों की परवाज़ लिए खड़ा हूँ ,
जैसे काफिरों की इस भीड़ में नमाज़ लिए खड़ा हूँ।