Friday, 15 August 2014

दो लफ़्ज चार पंक्तियाँ


(1 )

''मैं जब भी इस भीड़ में
 खुद को अकेला सा पाता हूँ ,
 पहुँच के घर अपनी
 क़िताबों से लिपट जाता हूँ ''





(2)


''मन के तमस में
 सुकून उजला गया
 वो बच्चा जब मुझे देख
 बेवजह मुस्कुरा दिया ''




शाम


शाम जब ढलती है
तो ढलने लगता है ये शहर जैसे,
ढलने लगती है दफ्तरों में जिंदगी की दौड़,
ढलने लगती है वो गली, वो चौराहा, वो मोड़,
छुपने लगती है धुप उन पहाड़ों के पीछे,
झील जगमगाने लगती है सितारों नीचे,
खानबदोशियों से लौटने लगते हैं , परिन्दे पेड़ों की ओर,
खामोशियों में दबने लगता है, पुरे दिन का शोर,
घर करने लगती है मन में यादें किसी की,
कानो में घुलती थी जो बातें किसी की,
सड़क के सुदूर छोर को अँधेरा निगलने लगता है,
मन में जमा बैचैनी का बर्फ पिघलने लगता है,
ढलने लगता है दर्द , ढलता है ये पहर जैसे,
शाम जब ढलती,
तो ढलने लगता है ये शहर जैसे। 
   

Wednesday, 6 August 2014

आँगन



धूप जब पत्तों से छनके मेरे चेहरे पे गुनगुनाती है ,
मुझे घर का आँगन, वो चौखट याद आती है ,

वो काला कोना आँगन का जो बेवजह डराता था,
वो नीम का पेड़ जो गर्मियों में झूला झुलाता था ,
वो कोना जिसमे खाट पे बैठी अम्मा राम-राम गुनती थी,
जहाँ चौकी बिछा माँ आचार की कैरियाँ चुनती थी,
अक्सर यादों के बंजर में बेवक़्त बरस जाती है ,
मुझे घर का आँगन, वो चौखट याद  है।    

कुल्फी की फेरी सुन वो बेसुध दौड़ पड़ना ,
हथेली  में रखे चार आने के बल पे दम भरना,
जून की दोपहरी में भी हर सड़क नाप आना ,
उस माली से दुश्मनी , आम के बाग़ से याराना ,
अब ख़ुशी जिंदगी की दौड़ में अक्सर हार जाती है,
मझे घर का आँगन , वो चौखट याद आती है। 


Tuesday, 5 August 2014

ज़िन्दगी


ज़िन्दगी 


सड़क के उस छोर पे कनखियों से झांकती ,
ज़िन्दगी भीड़ में यूँ चुपचाप खड़ी  है ,
बे-चेहरा  सी है , चहरे की तलाश में है भटकती ,
वक़्त की कब्र में ज़िंदा लाश सी गड़ी है ,
भीड़ में चीखती आवाज़ों में गुम है ,
बेज़ुबान लफ्ज है होंठों पे चुप्पी अड़ी है,
खाली से लोगों में , खनकता फरेब है,
सन्नाटे में दबी सिसकियाँ पड़ी है 
ज़िन्दगी भीड़ में यूँ चुपचाप खड़ी है। 

माँ




माँ 



मेरे  नन्हे कंधों से हर बोझ उतार लेती थी ,वो  माँ  होती थी जो सब सुधार  लेती थी।
चाहें बाबा से  नतीजों के बाद का डर हो ,
या अम्मा की पूजा थाल से लड्डू चोरी की सजा ,
चाहे छोटी की चोटी खेंचने की शरारत हो ,
या चिलचिलाती धुप में चीखती दोपहर ,
अपने पल्लू से मेरे चैहरे पे छाँव उतार लेती थी,
वो माँ होती थी जो सब सुधार लेती थी।
चाहे खेल में छिले फूटे घुटने कोहनी हो,
या पडोसी के लड़के से झगडे का उलाहना ,
इम्तिहानों की रातों में झपझपाती आँखें हो ,
या हल्दी वाला दूध पिलाने को सेहत का बहाना ,
कुछ बिगड़ने से पहले ही सब संवार लेती थी ,
वो माँ होती थी जो सब सुधार लेती थी।