Sunday, 21 December 2014

यादें




  यादें... या कहुँ के हमारा अतीत किसी एक बंद कमरे की तरह होता  हैं।  हमारी हर एक याद , हर एक बात , हर    वो शक्स , पहले इश्क़ से लेके , घर छोड़ने से पहले घर में बिताये उस आखिरी पल तक ....सब महफूज दबा  रहता है। जब भी फुर्सत मिली उस बंद कमरे को खोल हम वो  चीजें ढूढंते हैं , उनमे से कई चीजें जो हमे मुस्कान  दे जाती है तो कई जो आँखों में नमी सी छोड़ जाती है। उन्ही यादों की ओर गर मैं लौट के आऊँ तो ये सब दबा  मिलता है उस कमरे के बंद दरवाजों के पीछे... 




चले गुफ्तगू  जो तुम्हारी ,मेरी यादों से कभी ,
तो जहन के कोने में बिखरे मेरे ख़्वाब खंगाल लेना ,
रंज से रंगे कुछ खत रखे है दराजों में ,
उनमे सूखे मेरे आंसुओं को हथेली पे संभाल लेना ,
कुछ लोरियाँ मेरी माँ की , ताक में दबा रखी है ,
मेज के किनारे पे एक पुरानी सी तस्वीर सजा रखी है,
पास ही खूँटी पे बाबा की कुछ  हिदायतें टंगी  है ,
उधड़ती हुई दीवारें  जो अतीत के रंगो से रंगी है ,
लौटते वक़्त इन्हीं रंगों से इक रंग निकाल लेना ,
चले गुफ्तगू तुम्हारी मेरी यादों से कभी ,
तो जहन के कोने में बिखरे मेरे ख़्वाब खंगाल लेना। 

Saturday, 27 September 2014

मेरी माँ

घर से 7 साल बाहर रहने के बाद भी माँ ने कभी लगने ही नहीं दिया के मैं अकेला हूँ। हर पल लगा के माँ साथ है. उस से हर शाम फ़ोन पे बात कर, चाहे चंद मिनटों के लिए ही सही ये लग जाता है के वो साथ है। पर जिस बात का दर्द उसकी आवाज सुनके होता है वो ये की मैं उसके साथ नहीं, जब वो बीमार पड़ी ,जब वो रोई.… मैं नहीं था वहां....उस से गले लगने को...उसके आंसू पोछने को। और जब इस बार तीन महीने बाद मैं घर पहुंचा तो वो मेरे घर में घुसने से पहले ही दरवाजे पे मुझसे लिपट के रो पड़ी।  माँ से दूर रहके अब जाना के वो कितनी जरुरी है , और कैसे इस भागती सी जिंदगी में मैं उससे दूर होता चला जा रहा हू। 


मेरी माँ 


माँ मेरी हर रोज मेरे सपने में आ जाती है
उस गोद का सुकून जो बड़े होने की जुगत में खो चूका हूँ
वो सारा दुलार मेरी रूह उस एक सपने में पा जाती है

वो आँखे जो तुम्हारे चेहरे को महीनों तरसती है,
आस भरी उन आँखों से उस खाली रास्ते को तकती रहती है
"कब आएगा तू ?" "कब आएगा तू ?" बस यही राग जपती रहती है
जो तुमको देख के दरवाजे पे, तुमसे रोती हुई लिपट जाती है
के वो पूछे "कैसी हैं माँ तू?", मेरे इस एक सवाल को तरस जाती है.
जिसने कई मर्तबा जाग के देर तक रातों में मेरा इन्तजार किया है,
जो भूखी रही के मैं खा पाऊँ, बिना शर्त के जिसने मुझसे इतना प्यार किया है
जो तस्वीर से लिपट के मेरी, रोती हुई सो जाती है
वो  माँ मेरी हर रोज मेरे सपने में आ जाती है....

जिसके कमजोर घुटने तुम्हारे हाथ का सहारे ढूढ़ते हैं
जिसके कांपते हुए होंठ सपने में तुम्हारा माथा चूमते हैं
वो जो मीलों की दूरियों पे है तुमसे,
वो जो सबसे ज्यादा अकेली है,
वो खुद के लिए कुछ नहीं मांगती
पर तुम्हारे लिए व्रत करती है , पत्थर पूजती है
जो हर रोज फ़ोन पे मुझसे बस यही पूछती है
"खाना तो सही से खाता है ना ? "
"तेरा मन अच्छे से तो लग जाता है ना?"
मैं उसके इन सवालों के जवाब में चुप्पी से ज्यादा कुछ नहीं कह पाता हूँ
उसके पास ना हो पाने का अधूरापन, मन में कही दबा कर सब चुपचाप सह जाता हूँ

इस रोज की कश्मकश में बाकी सब जरुरी सा लगने लगता है
वो माँ जो सबसे ज्यादा जरुरी है, उसका होना मज़बूरी सा लगने लगता है
ना जाने क्यों इस रफ़्तार भरी ज़िंदगी की दौड़ में माँ पीछे छूट जाती है
उदास सा चेहरा लिए मेरी अकेली माँ, हर रोज मेरे सपने में आ जाती है।









Friday, 15 August 2014

दो लफ़्ज चार पंक्तियाँ


(1 )

''मैं जब भी इस भीड़ में
 खुद को अकेला सा पाता हूँ ,
 पहुँच के घर अपनी
 क़िताबों से लिपट जाता हूँ ''





(2)


''मन के तमस में
 सुकून उजला गया
 वो बच्चा जब मुझे देख
 बेवजह मुस्कुरा दिया ''




शाम


शाम जब ढलती है
तो ढलने लगता है ये शहर जैसे,
ढलने लगती है दफ्तरों में जिंदगी की दौड़,
ढलने लगती है वो गली, वो चौराहा, वो मोड़,
छुपने लगती है धुप उन पहाड़ों के पीछे,
झील जगमगाने लगती है सितारों नीचे,
खानबदोशियों से लौटने लगते हैं , परिन्दे पेड़ों की ओर,
खामोशियों में दबने लगता है, पुरे दिन का शोर,
घर करने लगती है मन में यादें किसी की,
कानो में घुलती थी जो बातें किसी की,
सड़क के सुदूर छोर को अँधेरा निगलने लगता है,
मन में जमा बैचैनी का बर्फ पिघलने लगता है,
ढलने लगता है दर्द , ढलता है ये पहर जैसे,
शाम जब ढलती,
तो ढलने लगता है ये शहर जैसे। 
   

Wednesday, 6 August 2014

आँगन



धूप जब पत्तों से छनके मेरे चेहरे पे गुनगुनाती है ,
मुझे घर का आँगन, वो चौखट याद आती है ,

वो काला कोना आँगन का जो बेवजह डराता था,
वो नीम का पेड़ जो गर्मियों में झूला झुलाता था ,
वो कोना जिसमे खाट पे बैठी अम्मा राम-राम गुनती थी,
जहाँ चौकी बिछा माँ आचार की कैरियाँ चुनती थी,
अक्सर यादों के बंजर में बेवक़्त बरस जाती है ,
मुझे घर का आँगन, वो चौखट याद  है।    

कुल्फी की फेरी सुन वो बेसुध दौड़ पड़ना ,
हथेली  में रखे चार आने के बल पे दम भरना,
जून की दोपहरी में भी हर सड़क नाप आना ,
उस माली से दुश्मनी , आम के बाग़ से याराना ,
अब ख़ुशी जिंदगी की दौड़ में अक्सर हार जाती है,
मझे घर का आँगन , वो चौखट याद आती है। 


Tuesday, 5 August 2014

ज़िन्दगी


ज़िन्दगी 


सड़क के उस छोर पे कनखियों से झांकती ,
ज़िन्दगी भीड़ में यूँ चुपचाप खड़ी  है ,
बे-चेहरा  सी है , चहरे की तलाश में है भटकती ,
वक़्त की कब्र में ज़िंदा लाश सी गड़ी है ,
भीड़ में चीखती आवाज़ों में गुम है ,
बेज़ुबान लफ्ज है होंठों पे चुप्पी अड़ी है,
खाली से लोगों में , खनकता फरेब है,
सन्नाटे में दबी सिसकियाँ पड़ी है 
ज़िन्दगी भीड़ में यूँ चुपचाप खड़ी है। 

माँ




माँ 



मेरे  नन्हे कंधों से हर बोझ उतार लेती थी ,वो  माँ  होती थी जो सब सुधार  लेती थी।
चाहें बाबा से  नतीजों के बाद का डर हो ,
या अम्मा की पूजा थाल से लड्डू चोरी की सजा ,
चाहे छोटी की चोटी खेंचने की शरारत हो ,
या चिलचिलाती धुप में चीखती दोपहर ,
अपने पल्लू से मेरे चैहरे पे छाँव उतार लेती थी,
वो माँ होती थी जो सब सुधार लेती थी।
चाहे खेल में छिले फूटे घुटने कोहनी हो,
या पडोसी के लड़के से झगडे का उलाहना ,
इम्तिहानों की रातों में झपझपाती आँखें हो ,
या हल्दी वाला दूध पिलाने को सेहत का बहाना ,
कुछ बिगड़ने से पहले ही सब संवार लेती थी ,
वो माँ होती थी जो सब सुधार लेती थी।