Thursday, 20 August 2015

वो दोनों

वो दोनों खामोश बैठे रहे, और रात गुजरती रही।  दोनों अजनबी नहीं हैं , न ये घर अजनबी है, सब आशना हैं  एक दूसरे से, फिर भी मुह फेरे है, न कहने को एक दूसरे से कुछ बचा , न सुनने को कुछ , बस एक अजनबी सी ख़ामोशी थी , जो पहले कभी न थी।  दोनों बस इस फ़िराक़ में थे  के बस ये रात कैसे न कैसे गुजर जाए ताकि ये रिश्तों का ज्वार जो चढ़ आया है वो भी उत्तर चले।


हर्फ़ - हर्फ़ मुन्तजिर उस लम्हे का ,
वो लम्हा इन्हीं लम्हों में गुजर गया ,
अब दरमियाँ बस ख़ामोशी की दीवारें हैं ,
ना वो आई इधर , ना मैं उधर गया।

मैं रात की ओट  में , दीवारों पे आवेजां तस्वीरें ताकता रहा,
ढूंढता रहा वो गुफ्तगू , जो मुंजमिद थी तले ख़ामोशी के,
वो भी किनारे बैठे अलाव के, रिश्तों की ख़लिश सुलझाती रही ,
अज़ीज  से उन अहसासों को अजनबी कर गया,
अब दरमियाँ बस अँधेरे की दीवारें हैं ,
ना वो आई इधर , ना मैं उधर गया।

अपने लम्स से मेरी रूह पे कई रुबाइयाँ लिखी उसने ,
कई ग़ज़लें मेरे ज़िस्म पे उसने अपने उँगलियों से पिरोई है ,
कभी मेरे जहन के रस्ते पामाल थे उसके ख़यालों की आवाजाही से,
कभी था होना उसका , मेरे लफ़्ज़ों को अशआर कर गया ,
अब दरमियाँ बस ख़ामोशी की दीवारें हैं ,
ना वो आई इधर , ना मैं उधर गया।

इशारें हैं बस ,
उनमे भी तल्खियाँ हैं ,
बस चार बेजां दीवारें हैं ,
और दो गूंगे जहन ,
ये मसला-ऐ-ख़ामोशी दिल को परेशां  कर गया ,
अब दरमियाँ बस ख़ामोशी की दीवारें हैं ,
ना वो आई इधर , ना मैं उधर गया।




हर्फ़- word  मुन्तजिर- waiting आवेजां-hanging मुंजमिद - frozen
लम्स- touch पामाल- trodden paths तल्खियाँ- bitterness