Sunday, 21 December 2014

यादें




  यादें... या कहुँ के हमारा अतीत किसी एक बंद कमरे की तरह होता  हैं।  हमारी हर एक याद , हर एक बात , हर    वो शक्स , पहले इश्क़ से लेके , घर छोड़ने से पहले घर में बिताये उस आखिरी पल तक ....सब महफूज दबा  रहता है। जब भी फुर्सत मिली उस बंद कमरे को खोल हम वो  चीजें ढूढंते हैं , उनमे से कई चीजें जो हमे मुस्कान  दे जाती है तो कई जो आँखों में नमी सी छोड़ जाती है। उन्ही यादों की ओर गर मैं लौट के आऊँ तो ये सब दबा  मिलता है उस कमरे के बंद दरवाजों के पीछे... 




चले गुफ्तगू  जो तुम्हारी ,मेरी यादों से कभी ,
तो जहन के कोने में बिखरे मेरे ख़्वाब खंगाल लेना ,
रंज से रंगे कुछ खत रखे है दराजों में ,
उनमे सूखे मेरे आंसुओं को हथेली पे संभाल लेना ,
कुछ लोरियाँ मेरी माँ की , ताक में दबा रखी है ,
मेज के किनारे पे एक पुरानी सी तस्वीर सजा रखी है,
पास ही खूँटी पे बाबा की कुछ  हिदायतें टंगी  है ,
उधड़ती हुई दीवारें  जो अतीत के रंगो से रंगी है ,
लौटते वक़्त इन्हीं रंगों से इक रंग निकाल लेना ,
चले गुफ्तगू तुम्हारी मेरी यादों से कभी ,
तो जहन के कोने में बिखरे मेरे ख़्वाब खंगाल लेना।