घर से 7 साल बाहर रहने के बाद भी माँ ने कभी लगने ही नहीं दिया के मैं अकेला हूँ। हर पल लगा के माँ साथ है. उस से हर शाम फ़ोन पे बात कर, चाहे चंद मिनटों के लिए ही सही ये लग जाता है के वो साथ है। पर जिस बात का दर्द उसकी आवाज सुनके होता है वो ये की मैं उसके साथ नहीं, जब वो बीमार पड़ी ,जब वो रोई.… मैं नहीं था वहां....उस से गले लगने को...उसके आंसू पोछने को। और जब इस बार तीन महीने बाद मैं घर पहुंचा तो वो मेरे घर में घुसने से पहले ही दरवाजे पे मुझसे लिपट के रो पड़ी। माँ से दूर रहके अब जाना के वो कितनी जरुरी है , और कैसे इस भागती सी जिंदगी में मैं उससे दूर होता चला जा रहा हू।
मेरी माँ
माँ मेरी हर रोज मेरे सपने में आ जाती है
उस गोद का सुकून जो बड़े होने की जुगत में खो चूका हूँ
वो सारा दुलार मेरी रूह उस एक सपने में पा जाती है
वो आँखे जो तुम्हारे चेहरे को महीनों तरसती है,
आस भरी उन आँखों से उस खाली रास्ते को तकती रहती है
"कब आएगा तू ?" "कब आएगा तू ?" बस यही राग जपती रहती है
जो तुमको देख के दरवाजे पे, तुमसे रोती हुई लिपट जाती है
के वो पूछे "कैसी हैं माँ तू?", मेरे इस एक सवाल को तरस जाती है.
जिसने कई मर्तबा जाग के देर तक रातों में मेरा इन्तजार किया है,
जो भूखी रही के मैं खा पाऊँ, बिना शर्त के जिसने मुझसे इतना प्यार किया है
जो तस्वीर से लिपट के मेरी, रोती हुई सो जाती है
वो माँ मेरी हर रोज मेरे सपने में आ जाती है....
जिसके कमजोर घुटने तुम्हारे हाथ का सहारे ढूढ़ते हैं
जिसके कांपते हुए होंठ सपने में तुम्हारा माथा चूमते हैं
वो जो मीलों की दूरियों पे है तुमसे,
वो जो सबसे ज्यादा अकेली है,
वो खुद के लिए कुछ नहीं मांगती
पर तुम्हारे लिए व्रत करती है , पत्थर पूजती है
जो हर रोज फ़ोन पे मुझसे बस यही पूछती है
"खाना तो सही से खाता है ना ? "
"तेरा मन अच्छे से तो लग जाता है ना?"
मैं उसके इन सवालों के जवाब में चुप्पी से ज्यादा कुछ नहीं कह पाता हूँ
उसके पास ना हो पाने का अधूरापन, मन में कही दबा कर सब चुपचाप सह जाता हूँ
इस रोज की कश्मकश में बाकी सब जरुरी सा लगने लगता है
वो माँ जो सबसे ज्यादा जरुरी है, उसका होना मज़बूरी सा लगने लगता है
ना जाने क्यों इस रफ़्तार भरी ज़िंदगी की दौड़ में माँ पीछे छूट जाती है
उदास सा चेहरा लिए मेरी अकेली माँ, हर रोज मेरे सपने में आ जाती है।