Monday, 28 September 2015

तलाश

मैं शब भर का जागा हूँ ,
के अब सो लेने दो
है कब से आँखों में कैद एक दरिया ,
थोड़ा रो लेने दो।

मौहब्बत ही तो थी
गुनाह तो नहीं था
जो होती हो अब क़यामत
तो हो लेने दो।

वो गया तो मुड़के देखा भी नहीं,
पर बोला के लौटुंग जरूर,
अब उन्ही लफ़्ज़ों के सहारे है ज़िन्दगी,
भारी तो है.…पर ,
अब ढो लेने दो।

ख्वाबों में मिलने का दिलासा था उसका,
और कई रातें गुज़ार दी हमने उस एक दिलासे की नज़र में,
अब ना नींद आती है पूरी, ना  ख़्वाब पुरे लगते है
नज्म उलझी , मिसरे  अटके, अश'आर  अधूरे लगते है ,
मैं अब थक चूका हूँ तलाश में तेरी,
मुझको खो लेने दो,
मैं शब भर का जागा हूँ ,
के अब सो लेने दो ।


Thursday, 20 August 2015

वो दोनों

वो दोनों खामोश बैठे रहे, और रात गुजरती रही।  दोनों अजनबी नहीं हैं , न ये घर अजनबी है, सब आशना हैं  एक दूसरे से, फिर भी मुह फेरे है, न कहने को एक दूसरे से कुछ बचा , न सुनने को कुछ , बस एक अजनबी सी ख़ामोशी थी , जो पहले कभी न थी।  दोनों बस इस फ़िराक़ में थे  के बस ये रात कैसे न कैसे गुजर जाए ताकि ये रिश्तों का ज्वार जो चढ़ आया है वो भी उत्तर चले।


हर्फ़ - हर्फ़ मुन्तजिर उस लम्हे का ,
वो लम्हा इन्हीं लम्हों में गुजर गया ,
अब दरमियाँ बस ख़ामोशी की दीवारें हैं ,
ना वो आई इधर , ना मैं उधर गया।

मैं रात की ओट  में , दीवारों पे आवेजां तस्वीरें ताकता रहा,
ढूंढता रहा वो गुफ्तगू , जो मुंजमिद थी तले ख़ामोशी के,
वो भी किनारे बैठे अलाव के, रिश्तों की ख़लिश सुलझाती रही ,
अज़ीज  से उन अहसासों को अजनबी कर गया,
अब दरमियाँ बस अँधेरे की दीवारें हैं ,
ना वो आई इधर , ना मैं उधर गया।

अपने लम्स से मेरी रूह पे कई रुबाइयाँ लिखी उसने ,
कई ग़ज़लें मेरे ज़िस्म पे उसने अपने उँगलियों से पिरोई है ,
कभी मेरे जहन के रस्ते पामाल थे उसके ख़यालों की आवाजाही से,
कभी था होना उसका , मेरे लफ़्ज़ों को अशआर कर गया ,
अब दरमियाँ बस ख़ामोशी की दीवारें हैं ,
ना वो आई इधर , ना मैं उधर गया।

इशारें हैं बस ,
उनमे भी तल्खियाँ हैं ,
बस चार बेजां दीवारें हैं ,
और दो गूंगे जहन ,
ये मसला-ऐ-ख़ामोशी दिल को परेशां  कर गया ,
अब दरमियाँ बस ख़ामोशी की दीवारें हैं ,
ना वो आई इधर , ना मैं उधर गया।




हर्फ़- word  मुन्तजिर- waiting आवेजां-hanging मुंजमिद - frozen
लम्स- touch पामाल- trodden paths तल्खियाँ- bitterness

Monday, 16 March 2015

बड़ी दुश्वारियां हैं


बड़ी दुश्वारियां हैं,
दिल गूंगा हो चला है अब , ज़हन को लाखों बीमारियां हैं
बड़ी दुश्वारियां हैं।

सुलगता हुआ जहाँ है ये
सभी रूहें जल चुकी
महज पुतले बचे हैं मतलबी से
जैसे राख में दबी पड़ी अधमरी चिंगारियां हैं ,
बड़ी दुश्वारियां हैं।

किसी का साथ निभाता है क्या कोई अब भी ,
क्या अब भी होती है यारियां बिन समझौते की ,
या बस लाशें बची हैं इस इमारतों के जंगल में।
और अब सोचता हूँ के मैं भी लाश हो जाऊं
ज़िंदा पर ख़ामोश , बेजबान , मतलबी
ना जीने की तलब बची है अब , ना मरने की तैयारियां हैं,
बड़ी दुश्वारियां हैं।

बिस्तर में दुबकी अधमरी उम्मीद से पूछा मैंने ,
के चल साथ मेरे उस उफ़क के पार जहां नया भी होगा कोई ,
जहाँ ना होगी यारियां मतलब की ,
ना बाज़ारो में बिकता होगा ईमान लोगों का,
ना होती होगी नुमाइश किसी के जज़बातों की,
कुछ देर पड़ी रही वो भी लाश सी खामोश , फिर बोली सर झुका के
मेरी कई मजबूरियाँ हैं , मेरी भी कई लाचारियाँ हैं ,
बड़ी दुश्वारियां हैं।


Note :
उफ़क = horizon